भीनमाल का इतिहास

शहर प्राचीनकाल में 'श्रीमाल' नगर के नाम से जाना जाता था। "श्रीमाल पुराण" व हिंदू मान्यताओ के अनुसार विष्णु भार्या महालक्ष्मी द्वारा इस नगर को बसाया गया था। इस प्रचलित जनश्रुति के कारण इसे 'श्री' का नगर अर्थात 'श्रीमाल' नगर कहा गया। प्राचीनकाल में गुजरात राज्य की राजधानी रहा भीनमाल संस्कृत साहित्य के प्रकाण्ड विद्वान महाकवि माघ एवँ खगोलविज्ञानी व गणीतज्ञ ब्रह्मगुप्त की जन्मभूमि है। यह शहर जैन धर्म काभीनमाल शहर प्राचीनकाल में गुजरात राज्य की राजधानी था। पुरातनकाल में यह भिल्लमाल के नाम से भी जाना जाता था। ईस्वी सन् 641 में चीनी यात्री ह्वैंसान्ग यहाँ आया था, उसके अनुसार यह क्षेत्र प्रतिहार राजपूत रियासत थी। [1]यहाँ का राजा क्षत्रिय राजपूत था। वह बेहद बुद्धिमान एवँ युवा था। इस शहर में ब्राह्मण,बौद्ध एवँ जैन धर्मावल्म्बी रहते थे। चीनी यात्री ह्वैंसान्ग के यात्रा वर्णन के अनुसार तत्कालीन समय में भीनमाल पश्चिमी भारत का एक वैभवमय महत्वपूर्ण शहर था। इस शहर के 84 दरवाजे थे। उस समय में यहाँँ ब्राह्मण वर्ग का यहाँँ बहुल्य था, तथा जैन व बौद्ध धर्म का प्रसार भी काफी था। यहाँँ जैनो व बोद्धो की अनेक पौषाले थी। विख्यात तीर्थ है।राजा मान प्रतिहार जालोर में भीनमाल शासन कर रहे थे जब परमार सम्राट वाक्पति मुंज (९-२- ९९ ० ९ ०) ने इस क्षेत्र पर आक्रमण किया - इस विजय के बाद इन विजित प्रदेशों को अपने परमार राजकुमारों में विभाजित किया - उनके पुत्र अरण्यराज परमार को अबू क्षेत्र, उनके पुत्र और उनके भतीजे चंदन परमार को, धारनिवराह परमार को जालोर क्षेत्र दिया गया। इससे भीनमाल पर प्रतिहार शासन लगभग 250 वर्ष का हो गया। [2] राजा मान प्रतिहार का पुत्र देवलसिंह प्रतिहार अबू के राजा महिपाल परमार (1000-1014 ईस्वी) का समकालीन था। राजा देवलसिम्हा ने अपने देश को मुक्त करने के लिए या भीनमाल पर प्रतिहार पकड़ को फिर से स्थापित करने के लिए कई प्रयास किए, लेकिन व्यर्थ में। वह चार पहाड़ियों - डोडासा, नदवाना, काला-पहाड और सुंधा से युक्त, भीनमाल के दक्षिण पश्चिम में प्रदेशों के लिए बस गए। उन्होंने लोहियाना (वर्तमान जसवंतपुरा) को अपनी राजधानी बनाया। इसलिए यह उपकुल देवल प्रतिहार बन गया। [3] धीरे-धीरे उनके जागीर में आधुनिक जालोर जिले और उसके आसपास के 52 गाँव शामिल थे देवल ने जालोर के चौहान कान्हाददेव के अलाउद्दीन खिलजी के प्रतिरोध में भाग लिया। लोहियाणा के ठाकुर धवलसिंह देवल ने महाराणा प्रताप को जनशक्ति की आपूर्ति की और उनकी बेटी की शादी महाराणा से की, बदले में महाराणा ने उन्हें "राणा" की उपाधि दी, जो इस दिन तक उनके साथ रहे। [4] इस शहर के वैभव के कारण यहाँँ मुगल आक्रांताओँ ने कई बार आक्रमण किये। इस्वी सन् 1310 में मुगल शाशक अल्लाउद्दिन खीलजी द्वारा यह शहर लूटा गया। पन्द्रहवी शताब्दी में लिखित "खान्देद प्रबंध" में इस शहर के वैभव का सम्पूर्ण वर्णन मिलता है जिसके मुतबिक वर्गाकार क्षेत्र में बसा हुए भीनमाल के 84 दरवाजे थे तथा यहाँँ पर कई इस्लामिक आक्रमण हुए।

प्राचीनकाल से यहाँँ अनेक जैन तीर्थंकर व हिंदू दैवी-देवताओ यथा गणपतिशिवलिंग(शंकर), चण्डिका देवी, अम्बे माता, क्षेमंकरी माता, वराहश्याम आदि के मंदिर है। वर्तमान में अनेको जैन मंदिर है जिनमें तेईसवे जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथ एवँ अंतिम जैन तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी का मंदिर काफी विख्यात है। बुद्ध-वास में बने हुए महावीर स्वामी मंदिर का निर्माण गुर्जर शाशक "कुमारपाल महाराजा" द्वारा करवाए जाने का उल्लेख है। इसकी प्रतिष्ठा व अंजंनशलाका जैनाचार्य हैमचंद्राचार्य द्वारा की गई थी। उस समय यहाँँ प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव जी की प्रतिमा स्थापित की गई थी। कलांतर में हुए विभिन्न जीर्णोद्धार में वर्तमान मूलनायक महावीर स्वामी जी हो गये।

भीनमाल विद्वानों व साहित्य मनीषीयों का गढ़ था, जिनकी विद्वता एवँ ज्ञान की कीर्ति पताका का बोलबाला सुदूर पूर्व तक फैला हुआ था। सम्राट भोजदेव के समकालीन रहे संस्कृत सहित्य के प्रकाण्ड विद्वान महाकवि माघ का जन्म यहीं हुआ था। इस्वी सन् 680 में उन्होनें "शिशुपाल वध्" नामक काव्य ग्रंथ की रचना यहाँ की थी। इस्वी सन् 598 में राजा हर्षवर्धन के समकालीन रहे गणितज्ञ व सुविख्यात खगोल विज्ञानी ब्रह्मगुप्त का यहाँ जन्म हुआ था। जिन्होने 628 में "ब्रह्म स्फुट सिद्धांत" तथा 665 में 'खण्ड्-खण्डकव्य' की रचना की थी। जैन धर्म के कई प्राचीनतम ग्रंथों की रचना स्थली भीनमाल है। इनमें यहाँँ जन्मे सुविख्यात जैन आचार्य सिद्धऋषी गणि की इस्वी सन् 905 मैं संस्कृत सहित्य की महत्वपूर्ण रचना 'उपमिति भव प्रप्रंच कथा', जैनाचार्य विजय गणि कि 'जैन रामायण्' (1595), एवँ आचार्य उध्योतन सुरी कृत "कुवयलमाला" आदि प्रमुख है।

जैन धर्म का भीनमाल में प्रभावसंपादित करें

अनेक ऐतिहासिक उतार चढावों का गवाह भीनमाल शहर जैन धर्म का एक महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल पुरातनकाल से रहा है। ईस्वी सन् 1277 (विक्रम सम्वत्-1333) के एक पुरातन शिलालेख पर जैन धर्म के अंतिम तीर्थंकर महावीर स्वामी जी के जीवंत स्वामी स्वरुप में यहाँँ पधारने के उल्लेख है

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